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बतलाते हैं और पति के साथ मरनेको धर्म बतलाते हैं तथा उसी अपने बतलाये निंद्य धर्ममें स्वयं चलते हैं वा उस धर्मको धारण करते हैं उनका उस निंद्य धर्मका धारण करना लोकसूढता कहलाती है ।। ४४ ।। ४५ ।।
निजात्मबाह्याश्च विवेकशून्या, ये केsपि मूर्खा धनपुत्र हेतोः । भक्त्या कुदेवान् जिनधर्मबाह्यान्, नमन्ति वान्यान् खलु नामयन्ति ॥ ४६ ॥ भवेद्धि तेषामिति देवतायाः, स्वराज्य खलु मूढतापि । ज्ञात्वेति भव्यैः परमार्थनिष्टै,
र्न वन्दनीया जिनबाह्यदेवाः ॥३४७॥
जो लोग अपने आत्मज्ञानसे रहित हैं और विवेक रहित हैं ऐसे मूर्ख धन वा पुत्रकी प्राप्ति के लिये जिनधर्मसे रहित ऐसे कुदेवोंको भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं और अन्य जीवोंसे नमस्कार कराते हैं ऐसे जीवोंका कुदेवोंको नमस्कार करना वा कराना देवमूढता कहलाती है । यह देवमूढता आत्मजन्य स्वराज्यको वा सुखको हरण करने वाली है । यही समझकर परमार्थमें तल्लीन हुए भव्य