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[१६७] आठों अंगोंको धारण करनेवाले इन ऊपर कहे हुए सज्जन भव्य पुरुषोंका सदा अनुकरण करते रहना चाहिये ॥ ३४०-३४३ ॥
लक्षणं मूढतानां भी वद मे साम्प्रतं गुरो ! प्रश्नः-हे गुगे ! अब मेरे लिए मूढताओंका लक्षण कहिये ?
क्रोधस्य लोभस्य परात्मबुद्धे-, विनाशनेनैव भवेत्सुधर्मः। स्वर्मोक्षदाता च जिनोक्त एव. त्यक्त्वा खलास्तं च जिनोक्तधर्मम् ४४ स्नानेन नद्यां तपनेन चाग्नौ, ब्रुवन्ति पत्या मरणन सार्द्धम् । धर्मे च तत्रैव चलन्ति निंये,
लोकस्य तेषामिति मूढतापि ॥३४५॥ इस संसारमें श्रेष्ठ धर्म क्रोधका त्याग, करने लोभका त्याग करने और परपदार्थों में आत्मबुद्धिका त्याग कर नेसे होता है, तथा वही श्रेष्ठ धर्म भगवान् जिनेन्द्र देवका कहा हुआ है और स्वर्गमोक्षका देनेवाला है । जो दुष्ट लोग भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए इस श्रेष्ठ धर्मको छोडकर नदीमें स्नान करने को धर्म बतलाते हैं, अग्निमें तपनेको
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