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हैं उनके अत्यंत निर्मल और मोक्ष देनेवाला ऐसा प्रभाचना नामका सम्यग्दर्शनका आठवां अंग होता है । ३३६ ।। ३३७
अष्टांगमेवं शिवसाधकं च, संसारमूलस्य विनाशकं वा । यथार्थवस्तुप्रतिपादकं च, स्वात्मानुभूतेः परिपालकं हि ॥ ३३८ ॥ श्रीकुंथुनाम्ना मुनिनेति सूक्कं, बुद्धेति ये के हृदि धारयते । सदैव शक्त्या परिपालयंते, ते स्वर्गमोक्षं क्रमतो लभन्ते ॥ ३९ ॥
इस प्रकार यह आठों अंगों का समुदाय मोक्षका साधक है, संसारके मूलको नाश करनेवाला है, पदाथके यथार्थ स्वरूपको प्रतिपादन करनेवाला है और स्वात्मानुभूतिको प्रतिपादन करनेवाला है, ऐसा सुनिराज श्री कुंथु सागरजीने प्रतिपादन किया है। इन सबको समझ कर जो कोई मनुष्य इनको अपने हृदय में धारण करते हैं अपनी शक्ति के अनुसार इन सबको सदा पालन करते हैं वे मनुष्य अनुक्रमसे स्वर्गादिकों के सुखोंको भोगकर अंतमें मोक्ष प्राप्त करते हैं ।। ३३८ ॥ ३३९ ॥