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जो धर्मात्मा और दयालु पुरुष विना किसी प्रकारकी स्वार्थबुद्धिके मन वचन काय और कृत-कारित-अनुमोदना से उनकी विनय वा सेवा करते हैं उनके सुख आर शांति को देनेवाला अत्यंत निर्मल और शुभ ऐसा वात्सल्य नामका सम्यग्दर्शनका सातवां अंग होता है ॥३४॥३५॥
क्लेशादिदात्री सुखशांतिहीं, मिथ्यात्वजातां विषमां ह्यविद्याम् । विद्याकलाभिर्यजनादिदान, बोधामृतानंतपःसुदृष्टया ॥३३६॥ केनाप्युपायेन पलाययित्वा, सर्वोपरित्वं जिनशासनस्य । प्रदर्श्यते यैः शिवदायकं तत् , प्रभावनांगं विमलं हि तेषाम् ॥३७॥ यह मिथ्यात्वसे उत्पन्न हुई अविद्या अत्यंत क्लेश देनेवाली है, अत्यंत विषम है और सुख शांतिको हरण करनेवाली है । इसको जो पुरुष अपनी विद्या वा कलाओंस पात्रदान वा देवपूजन से, ज्ञानरूपी अमृतसे, ध्यानस, तपसे, सम्यग्दर्शनसे अथवा अन्य किसी भी उपाय से नष्ट कर जिनशासन की उत्तमता सर्वोपरि दिखलाते