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[१६० स्वात्माश्रितानां शिवसाधकानां, ग्लानिं न कुर्वन्ति गुणप्रमोदात् । स्वर्मोक्षदं संभवरोगहर्तृ,
तेषां भवेन्निर्विचिकित्सितांगम् ॥३२७॥ जो मुनिराज अपने आत्माके आश्रित रहते हैं और मोक्षका साधन करते रहते हैं उनका शरीर यद्यपि तुच्छ है स्वभावसे ही मलिन है, अपवित्र है, घृणित है, भयानक है, और मलमूत्रसे भरा है तथापि रत्नत्रय गुण के निमि
से वह अत्यंत पवित्र है। ऐसे मुनियोंके शरीरमें उनके गुणोंसे प्रसन्न होकर जो कभी ग्लानि नहीं करते उन भव्य जीवोंके स्वर्ग मोक्षको देनेवाला और संसारके रोगोंको हरण करनेवाला ऐसा सम्यग्दर्शन का निर्विचिकित्सित नामका तीसरा अंग होता है ॥ ३२६॥३२७
क्लेशादियुक्ते कुटिले कुमार्गे,
भ्रांतिप्रदेऽनन्तभवप्रदे च । मिथ्याप्रपंचस्थितजीववर्ग, स्वर्मोक्षवाह्ये सकले कुधमें ॥३२८॥ प्रीतिः प्रशंसानुमतिः स्थितिश्च, मनोवचःकायकृतादिभेदैः ।