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[१५९] एतादृशे सौरव्य इहान्यलोके, कुर्वन्ति नास्थां न कदापि कांक्षाम् ॥ भवेद्धिं तेषां शिवदं पवित्रं, वंद्यं हि निःकांक्षितमेव चांगं ॥३२५॥ यह इस लोकसंबंधी अथवा परलोकसंबंधी सुख अपने आत्मासे भिन्न है, क्षणक्षणमें नष्ट होनेवाला है, भयंकर है, अनेक क्लेशोंसे परिपूर्ण हैं, पुद्गलादिक अन्य 'पदार्थों से उत्पन्न होता है, निंदनीय है, अपने आत्मामें तल्लीन रहनेवाले मुनियोंके द्वारा त्याग किया हुआ है, पहले भोगते समय अच्छा मालूम होता है परंतु अंतमें कडवा वा दुःख देनेवाला है ऐसे इस लोक और परलोक संबंधी सुखमें जो पुरुष कभी श्रद्धान नहीं करते और कभी उसकी इच्छा नहीं करते उन पुरुषोंके मोक्ष देनेवाला पवित्र और वंदनीय ऐसा सम्यग्दर्शनका निःकांक्षित नामका दूसरा अंग होता है ॥३२४ ।। ३२५ ॥
तुच्छे निसर्गान्मलिने पवित्रे, बीभत्सभीमे मलमूत्रयुक्ते । रत्नत्रयस्य स्वगुणस्य योगा-, त्पवित्रभूते शिवहेतुदेहे ॥३२६॥