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[१६१] यैर्भव्यजीवैः क्रियते न यत्र, दृष्टि_मूढा भवतीह तेषाम् ॥३२९॥ जो मोक्षका मार्ग अनेक क्लेशोंसे भरा हुआ है, कुटिल है, भ्रांति उत्पन्न करनेवाला है और अनंत भवोंको देनवाला है तथा इसीलिये जो कुमार्ग कहलाता है ऐसे कमार्ग में तथा मिथ्याप्रपंचोंमें रहनेवाले जीवोंके समूहमें और स्वर्गमोक्षक साधनोंसे अलग रहनेवाले समस्त कुधा में मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनासे जो भव्य जीव न प्रेम करते हैं, न उनकी प्रशंसा करते हैं, न अनुमति देते हैं और न उनमें रहते हैं उनके अमूढदृष्टि नामका सम्यग्दर्शनका चौथा अंग होता है ॥ ३२८॥३२९
विवेकशून्यैः कृपणैर्गृहस्थै, निजात्मशून्यैर्मुनिभिश्च जाता। श्रीजैनधर्मस्य शिवप्रदस्य, ग्लानिश्च निंदा ह्यपनीयते या ॥३०॥ बोधामृतैर्ज्ञानबलैः सुदानै-, थैत्र भव्यैर्जिनधर्मनिष्ठैः। भवेद्धि तेषामुपगृहनांगं, शान्तिप्रदं भ्रान्तिहरं मनाझं ॥३३१॥