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ज्ञात्वेति शीघ्रं हि कलवमात्रं, त्यक्त्वापि सम्बंधभवं प्रदोषम् ॥ ३२० ॥ मनोवच: का यकृतादिभेदै, मोक्षप्रदे सौख्यम स्वराज्ये । शान्तिप्रदे स्वात्मन एव धमें, स्थातुं प्रयत्नश्च सदा विधेयः ॥ ३२९ ॥ ॥३२१॥ इस संसार में कर्मबंधका मूलकारण स्त्री है और मोक्षका मूल कारण उसका त्याग है यही समझकर भव्य जीवोंको शीघ्र ही स्त्रीमात्रका त्याग कर देना चाहिए और उसके संबंध से होनेवाले दोषोंका भी त्याग कर देना चाहिए तथा मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनासे मोक्षप्रदान करनेवाले, अनंत सुखमय, अत्यंत शांति देने वाले और अपने स्वराज्यरूप अपने आत्माके विज्ञानमय धर्ममें सदा काल स्थिर रहनेका प्रयत्न करना चाहिए । इसीको ब्रह्मचर्य धर्म कहते हैं || ३२० ॥३२१ ॥
वद निःशंकितादीनामंगानां लक्षणं गुरो ! प्रश्न: - हे गुरो ! कृपाकर कहिये कि सम्यग्दर्शनके निःशंकितादि अंग कैसे हैं ?
निदोंषयोगाद्धि जिनोक्त एव, मोक्षस्य मार्गः सुखदः पवित्रः ।