________________
[१५४] भायमान होती है, न कोई धनवान शोभायमान होता है, न कोई शास्त्री शोभायमान होता है और न कोई मुनि शोभायमान होता है ।। ३१२ ।। ३१३ ॥
मिथ्याप्रपंचस्य पलायनार्थं, समस्तकारिविनाशनार्थम् । पंचाक्षवह्नि शमितुं समर्थ, शीघ्रं च भेत्तुं बहिरात्मबुद्धिम् ॥३१४॥ इच्छानिरोधः खलु तस्य चिह्न, जिनैः प्रतिं द्विविधं तपश्च । ज्ञात्वेति कार्यं निजराज्यहेतोः स्वर्मोक्षदं वाञ्छितदं सदैव ॥३१५॥ भगवान जिनेन्द्रदेवने इस तपश्चरणका लक्षण इच्छाका रोकना बतलाया है, तथा अंतरंग और बाह्यके भेदसे दो भेद बतलाये हैं। यह तपश्चरण मिथ्यामपंचोंको नष्ट करनेमें समर्थ है, समस्त कर्मरूप शत्रुओंको नाश करनेमें समर्थ है, पांचों इन्द्रियरूपी अग्निको शांत करनेमें समर्थ है, बहिरात्मबुद्धिका नाश करने में समर्थ है, स्वर्ग मोक्षको देनेवाला है और समस्त इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला है। यही समझकर भव्य जीवों को अपना आत्मजन्य गये