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जो मनुष्य आर्जव धर्मको नष्ट कर देता है उसके शील, व्रत, ध्यान जप, क्षमा, पूजा, प्रतिष्ठा और आत्मा के श्रेष्ठ विचार सब व्यर्थ हो जाते हैं । यही समझकर भव्यजीवों को अपने विचार जैसे अपने मनमें करने चाहिये वैसे ही वचन से कहना चाहिये तथा उसी प्रकार शरीरसे करना चाहिये । इसीको आर्जव धर्म कहते हैं । यह आर्जव धर्म स्वर्गमोक्षको देनेवाला है, इच्छाके अनुकूल पदार्थोंको देनेवाला है और शीघ्र ही संसाररूपी रांगको हरण करनेवाला है || ६ ॥ ७ ॥
पापस्य मूलं कथितोऽस्ति लोभः, समस्तसंतापविवर्द्धको वा । संसारबंधस्य च मुख्यहेतु-, स्तथैव संकल्पविकल्पजालः ॥ ३०८ ॥ त्याज्यः स लोभो ह्यवगम्य चैवं, समस्त साम्राज्य निधानभूतः । स्वर्मोक्षदो वा सुखशान्तिकोशः, शुचित्वधर्मः परिपालनीयः ॥ ३०९ ॥
यह लोभ भगवान् जिनेन्द्रदेवने पापका मूल वतलाया हैं तथा यही लोभ समस्त संतापोंको बढानेवाला है, संसारके बंधनों का मुख्य कारण है और अनेक संकल्प