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[१४८] पठंति भव्या भुवि ताः स्मरति, शृण्वन्ति ये केचन पाठयन्ति । साम्राज्यलक्ष्मी कमतश्च लब्ध्वा,
ते शाश्वतं मोक्षपदं लभंते ॥३०१॥ मुनिराज श्रीकुंथुसामरने संसारके बंधको नाश करनेके लिये अपनी बुद्धि के अनुसार अत्यंत मनोज्ञ इच्छानुसार फल देनेवाली और सुख देनेवाली ये सोलह भावनाएं निरूपण की है । जो भव्य जीव इन सोलह भावनाओं को पढते हैं, पढाते हैं, स्मरण करते हैं वा सुनते हैं वे मनुष्य इस संसारमें अनुक्रमसे साम्राज्य लक्ष्मीका उपभोग करते हुए सदा रहनेवाले मोक्षपद को प्राप्त करते हैं ।। ३०० ॥ ३०१ ॥ दशधर्माश्च लोकेऽस्मिन् कीदृशाः सन्ति भी गुरो।
प्रश्नः-हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि इस संसारमें दर्श. धर्म कैसे हैं ?
क्षमैव सारा परमा त्रिलोके, चिन्तामणिश्चिन्तितवस्तुदाने । शान्तिप्रदा वैरविनाशिका च, भीमाद्भवाब्धेः खलु पारकर्ली ॥३०२॥