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शान्त्या विहीनो न जपस्तपोपि । व्रतोपवासोपि न भाति लोके ॥ सूर्येण हीनं न दिने विभाति । चारित्रहीनो न च भाति साधुः ॥ १६ ॥
जिस प्रकार विना शांतिके इस लोक में जप तप व्रत और उपवास आदि कुछ शोभा नहीं देते, विना सूर्यके दिनकी शोभा नहीं होती और विना सम्यक् चारित्र धारण किये साधुकी शोभा नहीं होती ॥ १६ ॥
जातिः कुलं भाति धनेन हीनं । न भाति हीनो दयया व्रती च ॥ न भाति जीवः कुलजातिहीनः ॥ सुपुत्रहीनं न गृहं विभाति ॥ १७ ॥
जिसप्रकार विना धनके जाति और कुलकी शोभा नहीं होती, विना दयाके व्रतीकी शोभा नहीं होती, विना श्रेष्ठ कुल और श्रेष्ठ जातिके जीवकी शोभा नहीं होती और विना सुपुत्र के घर की शोभा नहीं होती ॥ १७॥
श्रेष्ठपि पुत्रः कुलजातिधर्मा - । न्मातुः पितुर्यः प्रतिकूलवर्ती ॥