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[६५] पिश्च मातृरपराधशून्यान् , मित्राणि बंधूनपि धर्मयुक्तान् ॥११६॥ स्वानन्दतृप्तानपि सर्वसाधून् , विचारशून्यः खलु हन्ति सर्वान् । पापिष्ठराजा हि यथैव जीवान् , धिगस्तु को तं परमार्थशून्यम् ॥ ११७ ॥ उत्तरः-जो जीव अपने आत्मज्ञानसे रहित होता है वह यदि क्रोधसे संतप्त हो जाय तो वह विना किसी अपराधके माताको भी मार डालता है, पिताको भी मार डालता है, मित्रोंको भी मार डालता है, धर्मात्मा भाइयों को भी मार डालता है, अपने आत्मजन्य आनंदमें तृप्त रहनेवाले समस्त साधुओंको भी मार डालता है । जिस प्रकार पापी राजा अनेक निरपराध जीवोंको मार डालता है उसी प्रकार विचाररहित क्रोधी मनुष्य भी समस्त जीवोंको मार डालता है । अत एव इस संसारमें परमार्थहित जीवोंको बारबार धिक्कार है ।। ११६ ॥ ११७॥
तत्त्वप्रबोधशून्यास्ते जीवाः किं चिन्तयन्ति भोः ?
प्रश्न:-हे गुरो ! तत्त्वज्ञानसे रहित जीव क्या क्या चिंतन करते हैं ?