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समस्त बंधुओंसे विरक्त होकर अपनी आत्मानुभूति में स्थिर रहनेका प्रयत्न करना, वा आत्मजन्य निश्चल स्वराज्य में स्थिर रहनेका प्रयत्न करना अथवा सदाकाल आत्मजन्य सुखका अनुभव करना सुख देनेवाला संवेगभाव कहलाता है । यह संवेगभाव भव्य जीवोंको अपने हृदयमें तीनों का धारण करना चाहिये ।। २७५ ।। २७६ || मिथ्यात्वमोहादिविवर्जिताय, दृग्बोधचारितसमन्विताय ।
स्वानन्दजुष्टाय दद्याश्रिताय, भव्याय संघाय चतुर्विधाय ॥ २७७॥ चतुर्विधं यत्र च दीयते हि, भक्त्या सुदानं परमार्थबुध्या । स्वर्मोक्षदो दानविधिः स एव, भव्यैः स्वशक्त्या हृदि धारणीयः २७८ जो भव्य मुनि वा चारों प्रकारका संघ मिथ्यात्व मोह आदि से रहित है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रसे सुशोभित है, अपने आत्मजन्य आनंदमें लीन है और अत्यंत दयालु है ऐसे मुनि वा चारों प्रकारके संघ को परमार्थबुद्धिस भक्तिपूर्वक चारों प्रकारका दान देना स्वर्ग मोक्ष देनेवाली दानकी विधि कहलाती है । भव्य