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या सन्मुनीनां स्वपदाश्रितानां, ज्वरादिरोगैः परिपीडितानाम् ॥२८३॥ मनोवचःकायकृतादिभेदैः, सेवा सुभक्तिः क्रियते च यत्र । सेवाविधिर्वाञ्छितदः स एव,
भक्त्या हि कार्यः सततं सुभव्यैः ॥२८४ जो श्रेष्ठ मुनि समस्त संसारसे अलग रहते हैं तथा जो यथार्थ तत्त्वोंको प्रतिपादन करनेवाले हैं और केवल अपने आत्माके आश्रित हैं ऐसे मुनि यदि ज्वरादि रोगोंसे पीडित हो जाय तो मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से उनकी संवा शुश्रूषा करना, उनकी भक्ति करना इच्छानुसार फल देनेवाला वैयावृत्त्य कहलाता है । यह वैयावृत्त्य भव्य जीवोंको भाक्तिपूर्वक सदा करते रहना चाहिये ॥ २८३ ॥ २८४ ॥
समस्तविश्वस्य यथास्थितस्य, द्रष्टुश्च बोध्दुः सततं यथावत् । त्रिलोकबंधोऽर्जितकर्मशत्रोः, स्वर्मोक्षदातुर्भवरोगहर्तुः ॥२८५॥