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सैवास्ति भक्तिः सुखदा पवित्रा,
श्रुतस्य कार्या सततं सुभव्यैः ॥२९२॥ इस संसारमें जो द्रव्य और तत्त्व जिस रूपसे स्थित है उनको अपेक्षा दृष्टिस जो प्रतिपादन करनेवाला है, जो नय और प्रमाणोंसे सुशोभित है, जो अपने आत्मज्ञानको बढानेवाला है और आत्मज्ञान से राहत मिथ्याज्ञानको नाश करनेवाला है ऐसे जिनागमको जहांपर सुख देनेवाली और पवित्र भक्ति की जाती है उसको श्रुतभक्ति वा प्रवचनभक्ति कहते हैं। यह प्रवचनभाक्त भव्य जीवोंको सदाकाल करते रहना चाहिये ।।३९१॥२९२॥
त्यक्त्वा प्रमादं निखिलं च कार्य, यथोक्तकाले समशान्तवृत्त्या । दृग्बोधचारित्रविवर्द्धकं य-, होरपेतं शिवसौख्यदं वा ॥२९३॥ भक्त्या षडावश्यकमेव यत्र, स्वराज्यहेतोः क्रियते सदैव। भव्यैः षडावश्यकमेव कार्य, कर्मप्रणाशाय तपोऽभिवृद्धयै ॥२९॥