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[१३] स्वरूप को समझना, वा अपने आत्मा यथार्थ स्वरूपको समझना अथवा छहों द्रव्यस भरे हुए लोकके यथार्थ स्वरूपको समझना, इन सबका स्वरूप उनके यथार्थ लक्षणोंसे समझना, अथवा अपने आत्मजन्य आनंदामृत रसका सदा पान करते रहना, सुख देनेवाला अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग कहलाता है। अभीक्ष्ण शद्धका अर्थ सदाकाल है। अपना उपयोग सदाकाल ज्ञानमें लगाये रखना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है। एसा यह अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भव्य जीवांका अपने हृदयमें धारण करते रहना चाहिये ॥ २७३ ।। २७४ ।।
बाह्यात्पदार्थात्क्षणिकात्सुखाद्वा, भोगोपभोगाद्विषयाद्धि राज्यात् । समस्तबंधोरपि सन् विरक्तः, स्वात्मानुभूत्यामचले स्वराज्ये ॥२७५॥ स्थातुं प्रयत्नः क्रियते च यत्र, वा भुज्यते स्वात्मसुखं सदैव । संवेगभावः सुखदः स एव,
भव्यैस्त्रिकाले हृदि भावनायः ॥२७६॥ क्षण क्षणमें नाश होनेवाले बाह्य पदार्थोस, इन्द्रिय जन्य सुखसे, भोगोपभोगांसे, विषयास, राज्यसे और