________________
[७१] भगवान् जिनेंद्रदेवके कहे हुए शास्त्रोंका सुनना कानोंकी शोभा है, उत्तम पात्रोंको दान देना हाथोंकी शोभा है, जिनेंद्रदेवसे सुशोभित हुए जो तीर्थोकी यात्रा करना पैरों की शोभा है, पेटकी शोभा विधिपूर्वक पवित्र भोजन करना है, कंठकी शोभा भगवान् जिनेंद्रदेवकी कीर्तिका गान करना है और ज्ञानकी शोभा अपने शुद्ध आत्मामें बुद्धिका लगना है । इस प्रकार शरीरके अवयवोंकी समस्त शोभा समझकर भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिये सुख और शांतिके कारण ऐसे ऊपर लिखे हुए कारणोंमें ही अपने अपने समस्त शरीरके अवयवों को लगाना चाहिये ॥ १२६ ॥ १२७ ॥ १२८ ॥ भो गुरो ! सद्गुरुः कीदृक् लोकेऽस्ति वद साम्प्रतम् ?
प्रश्न- हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि इस संसार में सद्गुरु कैसे होते हैं ?
सुरक्षकत्वाद्गुरुरेव माता, सुशिक्षकत्वाच्च गुरुः पितैव । श्रीवर्द्धकत्वाद्गुरुरेव बंधु-, गुरुः सखा को हितचिन्तकत्वात् ॥१२९॥ सौख्यप्रदत्वाद्गुरुरेव विष्णु-, ब्रह्मा गुरुः स्वात्मपदप्रबोधात् ।