________________
[११]
जाय, जिससे लोभ और द्रोह नष्ट हो जाय, जिससे आशा शीघ्र नष्ट हो जाय, जिससे यह आत्मा शीघ्रही अपने आत्मजन्य सुखको भोगता रहे, जिस ज्ञान से यह जन्ममरण रूप संसार नष्ट हो जाय और जिस ज्ञान से यह: आत्मा अपने निश्चल शुद्ध आत्मामें लीन हो जाय, उस ज्ञानको स्वर्गमोक्ष देनेवाले भगवान जिनेन्द्रदेव श्रेष्ठ ज्ञान वा सम्यग्ज्ञान कहते हैं। आहार, मैथुन, निद्रा और भय ये सब जीवोंमें रहते हैं परंतु इस मनुष्यकी शोभा सम्य-ज्ञानसे ही होती है । सम्यग्ज्ञान के विना यह मनुष्य पशुके समान समझा जाता है ।। २१७-२२१ ।।
दानं ददाति यो नैव तस्य द्रव्यस्य का गतिः ? प्रश्नः - -जो मनुष्य दान नहीं देता उसके धनकी क्या गति होती है ?
धनं लब्ध्वापि पुण्येन पित्रे मावे न धर्मिणे । न ददाति सुपात्राय स्वयमप्यत्ति नैव यः ॥ २२२॥ कौ धनं पापिनस्तस्य शिलावत्प्रतिभाति मे । चौरो नयति राजा वा स्वयं नश्यति वा जवात् ॥
उत्तरः- जो मनुष्य अपने पुण्यकर्म के उदयसे धनको पाकर भी माता पिता वा धर्मात्माके लिये नहीं देता, न सुपात्रदान में उसे खर्च करता है और न स्वयं