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करते हैं और न उनको जीतनेके लिये दूसरोंको प्रेरणा करते हैं वे मनुष्य इच्छानुसार फल देनेवाले मनोहर चिन्तामणि रत्नको पाकर भी उसे संसाररूपी समुद्रमें फेंक देते हैं । अथवा इच्छानुसार फल देनेवाली कामधेनुको गहन वनमें छोड़ देते हैं । अथवा कल्पनाके अनुसार फल देनेवाले कल्पवृक्षको पाकर भी बहुत शीघ्र उसे जला देते हैं । इसीप्रकार रत्नत्रयको पाकर कर्मोको नष्ट न करनेवाले मनुष्य भी मनुष्यरूपी वेलको निश्वयसे तोड देते हैं ऐसा मैं समझता हूं ।। २२४-२२७ ।।
सर्वशास्त्रं पठित्वापि धर्मश्रद्धां करोति न || कीदृशः कथ्यते लोके भो गुरो ! वद साम्प्रतम् १
प्रश्न: - - हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि जो मनुष्य समस्त शास्त्रोंको पढकर भी धर्म की श्रद्धा नहीं करता है वह मनुष्य इस संसारमें कैसा गिना जाता है ! शद्वशास्त्रं कलाशास्त्रं धर्मशास्त्रं सुखप्रदम् । सर्व शास्त्रं पठित्वापि प्रमाणनयभूषितम् ॥ २२८॥ न्यायाचार्योऽपि भूत्वा यः श्रेष्टो मुनिरपि स्वयम् । सुधीमानपि क्योंऽपि पण्डितो निपुणोऽपि सन् ॥ व्यवहारमिह ज्ञात्वा निश्चयं चापि वस्तुतः |
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षड्द्रव्याण्यपि बुध्वेति स्वतत्त्वमपि चिह्नतः ॥