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श्रेष्ठा भवेद्दर्शनशुद्धिरेवं, स्वराज्यहेतोर्हृदि भावनीया ॥ २६८ ॥
समस्त तत्वोंका वा अपने शुद्ध आत्माका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है उसकी विशुद्धि समस्त दोषोंसे रहित होनेपर होती है। तथा अपने आत्माकी रुचि होने, आत्माका दर्शन होने, अपने शुद्ध आत्माका ज्ञान होने और भगवान जिनेन्द्रदेवमें अनुराग होनेसे वह सम्यग्दनकी विशुद्धि प्रगट होती रहती है । यह सम्यग्दर्शन की विशुद्धि आत्मजन्य स्वराज्य को देनेवाली है, पुद्गलादिक के परराज्यको हरण करनेवाली है, छहो खंडका अखंड राज्य देनेवाली है और सर्वश्रेष्ठ है । ऐसी यह सम्यग्दर्शनकी शुद्धि अपना आत्मजन्य स्वराज्य प्राप्त करने के लिये भव्य जीवोंको अपने हृदय में सदा चिंतन करते रहना चाहिये ।। २६७ ॥ २६८ ॥
हम्बोधचारित्र तपोविधीनां,
स्वमोक्षदानां शिवसाधकानाम् । तद्वारकाणामिति वा जनानां, स्वात्माश्रितानां स्वरसाश्रितानाम् ॥ २६९
सदा प्रशंसा क्रियते हि यत्र, सैवास्ति पूता विनयस्य सम्पत् ।