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प्रश्नःहे गुरो ! दैवकी मुख्यता कहां समझनी चाहिए और पुण्यसे क्या क्या प्राप्त होता है ?
कृते विशिष्टेऽपि सति प्रयत्ने, कार्यस्य सिद्धिर्न भवेद्यदा हि । दैवं प्रधानं खलु तत्र बोध्यं, बुधैश्च गौणं पुरुषार्थकार्यम् ॥१४२॥ पुण्येन वा सर्वधनं सुराज्यं, पुण्येन वा पुत्रकलत्रबंधुः। ज्ञात्वेति कुर्वन्तु सदैव पुण्यं,
कदापि धर्मान्न चलन्तु धीराः ॥१४३॥ उत्तरः-यदि विशेष और अधिक प्रयत्न करनेपर भी कार्यकी सिद्धि न हो तो वहांपर विद्वान् लोगोंको दैव ही प्रधान समझना चाहिये और पुरुषार्थको गौण समझना चाहिये । इस संसारमें पुण्यसे ही समस्त धन और श्रेष्ठ राज्यकी प्राप्ति होती है और पुण्यसे ही पुत्र, खी, भाई, बंधुओंकी प्राप्ति होती है । यही समझकर विद्वानों को सदा पुण्य उपार्जन करते रहना चाहिये और धर्मसे धीर पुरुषोंको कभी भी भ्रष्ट न होना चाहिये ॥१४२११४३॥
रत्नत्रयविहीनोऽयं जीवो भात्यत्र वा नवा ?