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[१०५] दृष्टि जीवको सम्यग्दर्शनरूपी सूर्यसे भय लगा रहता है, दुष्टको सज्जनसे भय लगता है, मिथ्याचारित्रके मार्गको सम्यक्चारित्रके मार्गसे भय लगा रहता है । कुमार्गको सुमार्ग से भय लगता है, चारों गतियोंको स्वात्मानुभूतिसे भय लगता है और अपने आत्मस्थानमें न रहनेवाले लोगोंको अपने आत्मा में निवास करनेवालोंसे सदा भय लगा रहता है ॥ १९० ॥ १९१ ॥ कोऽसौ सारो धनादीनां लोके वा कथ्यते जनैः ? प्रश्नः-इस संसारमें लोग धनादिकका सार क्या समझते हैं ? व्ययः सुपात्रे हि धनस्य सारो, बुद्धेश्च सारोऽस्ति निजात्मबोधः । व्रतादिकानां सुखशांतिदानां, देहस्य सारो ग्रहणं यथावत् ॥१९२॥ मुखस्य सारो जिनशास्त्रपाठः, संसारबंधत्यजनं हि लोके। नृजन्मसारो ह्यवगम्य चैवं पूर्वोत्तरीतिः खलु पालनीया ॥१९३॥ उत्तरः-धनका सार वा फल सुपात्रोंमें खर्च करना है, बुद्धिका सार अपने आत्माका ज्ञान है, शरीरका सार