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[९२] विज्ञानहींना इह जीव लोके, किं किं न कुर्वन्ति कुकर्मकार्यम् ॥१६८॥
उत्तरः-जो मनुष्य आत्मज्ञानशून्य हैं और इसीलिये जो दीन कहलाते हैं वे मनुष्य आत्मजन्य आनंदामृतको देनेवाले मनुष्यजन्म रूपी रत्नको पाकर भी केवल अपने कुटम्बको पालन पोषण करनेके लिये अनंत क्लेशोंसे भरे हुए और अत्यंत विषम ऐसे संसाररूपी समुद्र में उस मनुष्यजन्मको डुबो देते हैं पूरा करदेते हैं। उस मनुष्य जन्ममें भी चिंतामाणि रत्न और कल्पवृक्षके समान अनंतसुख देनेवाले रत्नत्रयरूप श्रीजैनधर्मको पाकर उसे केवल कामदेव रूपी हाथीकी रक्षा करनेके लिये छोड देते हैं । इसीप्रकार श्रेष्ठ ज्ञानरूपी रत्नको पाकर उसे धन कमानेके लिये व्यावहारिक कायोंके लिय लगा देते हैं। अतएव कहना पडता है कि आत्मज्ञान-शून्य मनुष्य इस संसारमें क्या क्या अकार्य नहीं करते हैं अर्थात् सबतरहके अकार्य कर डालते हैं । १६६ ॥१६७ ॥१६८ ॥
मिथ्यात्वं कीदृशं लोके सम्यक्त्वं वा गुरो वद ?
प्रश्नः-हे गुरो ! इस संसार में सम्यग्दर्शन कैसा है और मिथ्यात्व कैसा माना जाता है ?