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[७४] सतां न यत्नो भवति स्वदुःखे, परस्य दुःखस्य विनाशको हि। संसारकार्ये बिसिनीव वृत्ति-, निजात्मधर्मे मुनिवत्प्रवृत्तिः ॥१३३॥ तत्त्वप्रबोधः पतिवद्धि शच्याः, स्याद्वादवाणीव विचारशक्तिः। इत्येव संसारविनाशकोऽसौ,
सतां विचारो भवति स्वभावात् ॥१३४॥ उत्तरः-सज्जन पुरुष अपने ऊपर दुःख आनपर भी कभी उनके दूर करने का प्रयत्न नहीं करते, तथा दूसरों के दुःखोंका वे सदा नाश करते रहते हैं । सांसारिक भोग विलासोंमें वे कमलिनीके समान सदा अलग रहते हैं नथा अपने आत्माके शुद्ध स्वभावमें मुनियोंके समान प्रवृत्ति करते रहते हैं । उनका तत्वज्ञान इंद्राणीके पति इन्द्रके समान सर्वोत्कृष्ट होता है और उनकी विचारशक्ति स्याद्वाद वाणीके समान सदा निर्मल और यथार्थ रहती है । इस प्रकार इस पृथ्वीपर सज्जनोंके विचार स्वभावसे ही संसारको नष्ट करनेवाले होते हैं ॥ १३३ ॥ १३४ ॥
गुरो ! केन प्रकारण कर्मबंधो भवेन च ? ...