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[७५] प्रश्न:-हे गुरो ! जीवोंको किस प्रकार कर्मोका बंध नहीं हो सकता ?
सम्यक् समित्या निजबोधदृष्टया, विलोक्य रक्षन्नसुधारिणोऽन्यान्। सदैव कुर्वन्निजरूपशुद्धिं, तथैव चान्यानपि कारयंश्च ॥१३५॥ भाषेत चासीत शयीत गच्छेद् , भुंजीत वर्तेत पिबेद्यथावत् । खादेन्निजानंदरसं च येन, .
खोक्षलक्ष्मीश्च भवेत्स्वदासी ॥१३६॥ उत्तरः- जो जीव श्रेष्ठ समितियोंके द्वारा अथवा ज्ञानरूपी नेत्रोंसे अच्छीतरह देखकर अन्य समस्त जीवोंकी रक्षा करते हैं, जो अपने आत्माकी शुद्धिको सदा करते रहते हैं और अन्य जीवोंसे भी कराते रहते हैं, जो शास्त्रानुकूल वचन बोलते हैं, शास्त्रानुकूल बैठते हैं, शासानुसार सोते हैं, शास्त्रानुसार चलते हैं, शास्त्रानुसार आहार लेते हैं, शास्त्रानुसार ही अपना वर्ताव करते हैं और शास्त्रानुकूल ही पानी पीते हैं और आत्मजन्य आनंदामृतरसका स्वाद लेते रहते हैं ऐसे पुरुषोंके लिये स्वर्ग और मोक्ष भी दासीके समान हो जाता है फिर