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[६८] ग्रस्ता ग्रहैयें भुवि ते सदैव,
कदापि शान्तिं न सुखं लभन्ते ॥१२३॥ उत्तरः~यह मनुष्योंका हृदय बंदरके समान चंचल है, कुटुंबक लोग सब डांसंक समान चारोंसे भक्षण करने वाले हैं, यह पापी मोह मद्यके समान नीवोंको मोहित कर देनेवाला है, यह माया बगलाके समान सदा दुष्टता धारण करती रहती है, इस संसारमें इंद्रियां सब पिनाचके समान दुःख देनेवाली हैं, ये नोकपाय अग्निके समान सदा जलते रहते हैं। चिंता सदा क्षयरोगके समान कृश करती रहती है, यह नीच क्रोध भी शत्रुके समान सदा दुखी करता रहता है, यह जीवोंकी आशा लोकाकाशके समान विशाल रूप धारण कर भय दिखलाती है और यह मान भी संसारमें कलहका खजाना है । इस प्रकार जो मनुष्य इन मोह वा कपायरूपी ग्रहोंसे ग्रसित रहते हैं उनको कभी भी सुख और शांति पास नहीं हो सकती ॥ १२१-१२३ ॥
भो गुरो ! संति के लोके चाण्डालसदृशा नराः?
प्रश्न:- हे गुरो ! इस संसार में चांडालके समान मनुष्य कौन हैं ?
द्रोही सुधीमांश्च मुनिः प्रकोपी, श्रीमांश्च लोभी मनुजोऽपि मानी।