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प्रीतिश्च धीमत्सु सदैक्यभावः, सदैव षंढः परवल्लभासु । एतैर्विचारैः सुखशान्तिदैश्च, यः कोऽपि युक्तो निपुणः स एव ॥ ११५ ॥ ॥
उत्तरः – जो मनुष्य अपने कुटंबवर्गमें क्षेम धारण करता है, तथा विवेक धारण करता है, पूज्य पुरुषोंमें भक्ति धारण करता है, समस्त जीवोंमें मैत्री धारण करता है, जिनदेवकी सेवा करता है, दीनोंमें करुणा धारण करता है, आत्मज्ञानसे हीन पुरुषोंमें मध्यस्थता धारण करता है, विद्वान् पुरुषोंमें प्रेम करता है, सबसे मिलकर रहता है और परस्त्रियोंके लिये मपुंसक बन जाता है । इस प्रकार सुख और शांति देनेवाले शुभविचारोंसें जो सदा शोभायमान है वही पुरुष इस संखारमें मिपुण कहलाता है ।। ११४ ॥ ११५ ॥
क्रोधनः पुरुषो लोके कान् जीवान् हन्ति भो गुरो ! प्रश्न: - हे गुरो ! इस संसार में क्रोधी पुरुष किन जीवों को मार डालता है ?
निजात्मशून्यो यदि कोऽपि जीवः, क्रोधेन तप्तो भुवने कदाचित् ।