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[३४] जाता है । वह शांतिको चाहता है परंतु उसकी अशांति और बढ़ जाती है। स्वर्ग जानेके साधन इकट्ठा करना चाहता है परंतु उन्हीं कारणोंने वह नरक पहुंच जाता है। इस प्रकार आत्मज्ञानसे रहित और जिनधर्मरहित मूढ जीव अपने अज्ञानसे विपरीत कार्यही करता रहता है ॥ ६२ ॥ ६३ ॥
दानभोगेषु नायाति तद्धनं कुत्र गच्छति?
प्रश्न:-हे गुरो ! जो धन दान देने और भोगोपभोगोंमें काम नहीं आता वह धन कहां चला जाता है ?
धनं च यो नात्ति ददाति नैव, धर्माय देवाय न बंधवेऽपि । मात्रऽपि पित्रे गुरवेऽपि नैव, मन्ये ततोऽहं धनरक्षकं तम् ॥६४॥ तद्वा धनं तस्य हरन्ति चौरा, नयन्ति भूपा अनला दहन्ति । यत्रास्ति वा नश्यति तत्र शीघ्रं,
ज्ञात्वेति देयं चतुरेण वाद्यम् ॥६५॥ उत्तरः-जो मनुष्य अपने धनको न खाता पीता है, न किसी धर्ममें देता है, न किसी देवकार्य में खर्च