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शुभस्य हेतोरशुभं करोति, विधेश्च हेतोरविधिं तनोति । बोधस्य हेतोश्च करोत्यबोधं, शान्तेश्च हेतोर्वितनोत्यशान्तिम् ॥ ६२ ॥ स्वर्गस्य हेतोर्नरकं प्रयाति, taaraन्यो जिनधर्मबाह्यः । एवंविधं कौ विपरीत कार्यं, ह्यज्ञानतो मूढजनः करोति ॥ ६३ ॥
उत्तरः- जो जीव आत्मज्ञानसे रहित है, जिनधर्मसे बाह्य है, वह सुखके कारणोंको इकट्टा करना चाहता है परंतु उन कारणोंसे सुखके बदले दुःख ही भोगता है । लाभके लिए प्रयत्न करता है परंतु उससे भी हानि उठाता है । अपनी कीर्तिको फैलाना चाहता है परंतु उन्हीं कार्योंसे उसकी अपकीर्ति होती है । वह किसी कार्य के लिये प्रयत्न करता है परंतु उससे भी उसका अकार्य ही होता है । वह अपना कल्याण करना चाहता है परंतु वह अपना अकल्याण ही कर लेता हैं। जिस किसी विधिको करना चाहता है परंतु वह उससे विपरीत विधिको कर डालता है । वह ज्ञानके लिये प्रयत्न करता है परंतु उसका अज्ञान वा मिथ्याज्ञान बढ