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समाधिलीनस्य सुधेव मृत्युः, सन्तोषिनीवस्य विपद्धि सम्पत् ॥८॥ मिथ्यात्वयुक्तस्य दिवाऽपि रात्रिः, श्वभ्रश्च नाकः सुखमेव दुःखम् । सम्यक्त्वयुक्तस्य ततो विरुद्धो,
भवेत्प्रभावः स्वरसस्य योगात् ॥८३॥ उत्तरः--नो मनुष्य लोभरहित है उसके लिये धन भी शिलाके समान है । जो मनुष्य समाधि वा ध्यानमें लीन है उसके लिये मत्यु भी अमतके समान है । जो मनुष्य अत्यंत संतापी है उसके लिये विपत्तियां भी संपत्तिके समान हैं । जो मनुष्य मिथ्यात्वको धारण करता है उसके लिये दिन भी रात्रि है अर्थात मिथ्यात्वरूपी अधकार के होनेसे वह तत्वों के यथार्थ स्वरूपको नहीं जान सकता। इसी प्रकार उसके लिये स्वर्ग भी नरक है और सुख भी दुःख है। तथा जो मनुष्य सम्यग्दर्शन धारण करता है उसके लिये उसके विरुद्ध समझना चाहिये अर्थात् वह रात में भी दिनके समान तत्वोंके यथार्थ स्वरूपको जानता है । दुःखोंक आनेपर भी आत्मजन्य सुखमें लीन रहता है। सम्यग्दर्शनके प्रगट होनेपर जो अपने आत्मास उत्पन्न हुआ आनंदरसका समागम प्राप्त होता है उसका ही यह प्रभाव समझना चाहिये ।।८३॥