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[५३ ] जानन्ति पश्यन्ति निजान् परान्ये , खात्मानुभूतेः पतयो यथावत् । त एव वंद्याश्च नरामरेन्द्रैः,
सदैव पूज्या हृदि चिन्तनीयाः ॥९६॥ उत्तरः-जो मनुष्य अपने आत्मासे भिन्न रहनेवाले तथा आत्मासे विपरीतभूत; विनाशशील पुद्गलादिक पदाYको कभी ग्रहण नहीं करते हैं, तथा जो अपने आत्मजन्य स्वकीय आनन्दामृतपदको और शुद्ध आत्मजन्य आनंद रसको कभी नहीं छोडते हैं, और जो अपने आत्मतत्त्वको तथा आत्मासे भिन्न पुद्गलादिक समस्त तत्त्वोंको यथार्थरूपसे जानते हैं और देखते हैं वे ही पुरुष स्वात्मानुभूतिके स्वामी गिने जाते हैं । ऐसे पुरुषोंको इन्द्र, चक्रवर्ती आदि सभी वंदना करते हैं, सदा उनकी पूजा करते हैं, और अपने हृदयमें सदा उनका चिंतन करते रहते हैं ॥९५॥९६ किमर्थ लब्धमेतद्भोः शरीरं वद मे गुरो ?
प्रश्न:-हे गुरो ! यह बतलाइये कि यह शरीर किसलिए प्राप्त किया गया है ?
मोक्षार्थिभिर्धर्मधनेन यत्नात् , क्रीतं विशुद्धं वपुरेव यानम् ।