________________
[५४] अत्यन्तभीमात्कुटिलाद्भवाब्धेः, खर्गापवर्गादिविनाशकाद्वै ॥९७ ॥ गन्तुं च पारं स्वरसं च पातुं, ज्ञात्वेति मुक्त्वा भवदेहमोहम् । यावन्न नश्येद्धि वपुश्च तावत् ,
तरन्तु कुर्वन्तु निजोपकारम् ॥९८॥ .. उत्तरः-मोक्षकी इच्छा करनेवाले मनुष्योंने धर्मरूपी धन खर्च करके बड़े प्रयत्नसे यह विशुद्ध शरीररूपी जहाज खरीदा है । तथा यह जीव जो अत्यंत भयानक, कुटिल. और स्वर्गमोक्ष आदिको नष्ट करनेवाले संसाररूपी समुद्रमें पड़ा हुआ है उसको इस संसारसमुद्रसे पार करने के लिये और आत्मजन्य निजानंद रसकी रक्षा करनेके लिये ही यह शरीररूपी जहाज खरीदा है । यही समझकर संसार और शरीरसे मोहका त्यागकर जबतक यह शरीर नष्ट नहीं होता तबतक इस शरीरसे यह संसाररूपी समुद्र पार करलेना चाहिये, और इस प्रकार अपने आत्माका महा उपकार करना चाहिये ॥ ९७ ॥ ९८ ॥ कीदृशाः सन्ति लोकेऽस्मिन् जन्मसंगसुखादयः ।
प्रश्न:-हे गुरो ! इस संसार में जन्म, परिग्रह, सुख आदि कैसे माने जाते हैं ?