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[६०] बद्धो मुक्तश्च जीवोऽयं भो गुरो ! केन हेतुना ?
प्रश्नः-हे गुरो! यह जीव किस हेतुमे कर्मसे बंध जाता है और किस हेतुसे मुक्त हो जाता है ?
स्ववस्तुबुध्या परमेव वस्तु, यः कोऽपि गृह्णाति स एव बद्धः । स्ववस्तु चैवं परवस्तुबुध्द्या, गृह्णाति यः कोऽपि च सोऽपि बद्धः ॥१०८ निजत्वबुध्या निजमेव वस्तु, परत्वबुध्द्या परमेव वस्तु। चिह्न गृह्णात्यवगम्य यो हि,
स एव मुक्तः सुखशान्तिभोक्ता ॥१०९॥ उत्तरः-जो मनुष्य आत्मासे भिन्न पुगलादिक पर पदाथाको अपने आत्माके समझकर ग्रहण करता है वह मनुष्य वा जीव अवश्य ही कासे बंध जाता है । इसी प्रकार जो मनुष्य अपने आत्मतत्त्वको ही परवस्तु समझकर ग्रहण करता है वह भी कर्मोसे अवश्य बंध जाता है । तथा जो मनुष्य अपने अपने लक्षणोंसे आत्मतत्त्वको आत्मतत्व समझकर ग्रहण करता है और परपदार्थोको पर पदार्थ समझकर ग्रहण करता है, अर्थात जिसे स्वपरविवेक