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[ ५९] प्रश्नः-हे गुरो ! आशा, चिंता और दुराचारसे कौन कौनसे गुण नष्ट हो जाते हैं।
तीवा धनाशा हृदि यस्य तस्य, स्वप्नेऽपि धमों न च दानपूजा। यस्यास्ति चित्ते व्यभिचारबुद्धिः, स्वप्नेऽपि लना न कुलादिरक्षा ॥१०६॥ चिन्तानिवासो हृदि यस्य तस्य, खप्नेऽपि न स्वात्सुखशान्तिपानम् । मूर्खत्वभावो हृदि यस्य तस्य,
स्वप्नेऽपि नीतिन निजात्मसिद्धिः ॥१०७॥ उत्तरः-जिस मनुष्य के हृदयमें तीव्र धनकी आशा लग रही है वह स्वप्न में भी कभी धर्म नहीं करता, न वह दान देता है और न कभी पूजा करता है । इसी प्रकार जिसके हृदयमें व्यभिचारबुद्धि घुस जाती है उसके हृदयमें लज्जा और कुल वा जातिकी रक्षा कभी स्वममें भी नहीं आसकती । तथा जिसके हृदय में चिंता विद्यमान है उसके हृदयमें सुख और शांतिका पान कभी स्वममें भी नहीं हो सकता। और जिसके हृदयमें मूर्खता भरी हुई है उसके हृदयमें नीति और शुद्ध आत्माकी सिद्धि कभी स्वनमें भी नहीं हो सकता ॥ १०६ ॥ १०७॥