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दयाप्रचारं स्वसुखस्य चर्याम्, यः कोऽपि जीवो न करोति धर्मम् । स एव पापी कृपणोऽपि वत्स ! स एव मूर्खः खलु रन्ध्रगामी ॥ ८१ ॥
उत्तरः- हे शिष्य ! जो जीव न ध्यान करता है, न दान देता है, न तप करता है, न जप करता है, न पूजा करता है, न प्रतिष्ठा करता है, न तीर्थयात्रा करता है, न अपने आत्माकी शुद्धि करता है, न अपना कल्याण करता है, न अन्य जीवोंका कल्याण करता है, न धर्मका प्रचार करता है, न अपनी परलोककी गतिका विचार करता है, न दयाका प्रचार करता है, न अपने आत्मसुखकी चर्चा करता है और न उत्तम क्षमादिक धर्मको धारण करता है, समझना चाहिये कि इस संसार में वही पापी है, वही कृपण है, वही मूर्ख है और वही नरकगामी है ॥ ८० ॥ ८१ ॥
कथं लोभादिरहितो मन्यते च धनादिकम् ? प्रश्न: - लोभादि रहित मनुष्य धनादिकको कैसा मानता है ?
लोभेन मुक्तस्य धनं शिलेव, वैराग्ययुक्तस्य विषं हि भार्या ।