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[१७] स्वार्थाविरोधेन हितं मितं च, शान्तिप्रदं क्लेशहरं हि सत्यम् ॥८५॥ बोधप्रदं वैरभयप्रमुक्तं, सुखप्रदं दुःखहरं प्रशस्तम् । निजात्मसिध्यै परिणामशुध्दै, शास्त्रानुकूलं स्वपरोपशान्त्यै ॥८६॥
उत्तरः- तपस्वी लोग अपने आत्मपुरुषार्थ वा मोक्षपुरुषार्थ को सिद्ध करनेके लिये अवश्य ही मौन धारण करते हैं । यदि कदाचित् वे बोलते हैं तो जिसप्रकार अपनी आत्मशुद्धि में विरोध न आवे उसीप्रकार हित करनेवाले, थोडे वचन कहते हैं, तथा सबको शांति देनेवाले, क्लेशोंको दूर करनेवाले, आत्मज्ञानको उत्पन्न करनेवाले यथार्थ वा सत्य, वैर व भयसे रहित, सुख देनेवाले, दुःखोंको नाश करनेवाले, प्रशस्त और शास्त्रानुकूलं वचन कहते हैं । तथा ऐसे वचनोंको भी अपने आत्माकी 'सिद्ध अवस्था प्राप्त करनेके लिये परिणामोंको शुद्ध करनेके लिये तथा अपने आत्माको और अन्य जीवोंको शांत करने के लिये कहते हैं ॥ ८५ ॥॥ ८६ ॥
स्वामिन् ! स्वघातकः को वा को वास्ति परघातकः ?