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प्राणेषु को सत्सु गतेषु केपि।
जविा भवेयुर्न च धर्महीनाः ॥२०॥ यही समझकर भव्य जीवोंको शीघ्र ही अपना मोह छोडकर सदाकाल धर्म धारण करते रहना चाहिए । इस संसारमें प्राणोंका नाश होने पर भी जीवको कभी भी धर्मरहित नहीं होना चाहिए ॥२०॥ कानि धर्मस्य चिन्हानि । लोकेस्मिन् त्रिजद्गरो॥
प्रश्न:-हे तीनों लोकोंके गुरु ! इस संसार में धर्मके कौन कौन चिन्ह हैं ?
धर्मस्य चिन्हं प्रतिपाद्यते हि। क्षमादिवर्गं च तपो जपोपि ॥ व्रतोपवासो यजनं सुदानं ॥ शान्तिः सुशीलं समता दया हि ॥२१॥ धर्मो ह्यहिंसा ह्यनृतं ह्यचौर्यं । त्यागो ह्यसंगो मिथुनस्य लोके ॥ निजात्मधर्मे स्वपदे स्थिरत्वं ।
ध्यानं प्रभावा स्वरसस्य पानम् ॥२२॥ उत्तरः-हे शिष्य ! अब मैं धर्मके चिन्होंको कहता हूं, तू सुन । उत्तम क्षमा आदि दशधाका समूह ही धर्म