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श्रेष्ठापि भार्या पतिभक्तिहीना । न भाति शिष्यो गुरुभक्तिहीनः ॥ १८ ॥
जिस प्रकार कुल जाति और धर्मसे श्रेष्ठ होने पर भी माता पिताके प्रतिकूल रहनेवाला पुत्र सुशोभित नहीं होता तथा पतिकी भक्ति न करने वाली श्रेष्ठ भार्या भी सुशोभित नहीं होती और गुरुकी भक्ति के विना शिष्यकी शोभा नहीं होती ॥ १८ ॥
तथैव लोके जिनधर्महीनो । न भाति जीवो न च तस्य बुद्धिः ॥ क्रियाकलापोपि न भाति शौर्यं । भक्तिर्न शक्तिर्न नृजन्मरत्नम् ॥१९॥ उसी प्रकार इस संसार में विना जिनधर्मके न तो इस जीवकी शोभा होती है न उसकी बुद्धिकी शोभा बढती है न उसका क्रियाकांड सुशोभित होता है न उसकी शूर वीरता सुशोभित होती है न उसकी भक्ति सुशोभित होती है, न उसकी शक्ति सुशोभित होती है और बिना जिनधर्मके न उसका मनुष्य जन्मरूपी रत्न सुशोभित होता है ॥१९॥
ज्ञात्वेति कुर्वन्तु सदैव धर्मं । भव्यः प्रमोहं प्रविहाय शीघ्रम् ॥