________________
[८] लोक में विना गुरुके शिष्य सुशोभित नहीं होता और विना सभाके बुद्धिमान् की शोभा नहीं बढती ॥१३॥
चन्द्रेण हीना न च भाति रात्रिः । स्वात्मानुभूत्या रहितश्च साधुः ॥ नीत्या विहीनो न च भाति राजा।
न भाति शूरोपि विवेकशून्यः ॥१४॥ जिस प्रकार चन्द्रमाके विना रात्रिकी शोभा नहीं होती स्वात्मानुभूति अर्थात् अपने शुद्ध आत्माके अनुभवके विना साधुकी शोभा नहीं होती, नीतिके विना राजा शोभायमान नहीं होता, और शूर वीर विना विवेकके शोभायमान नहीं होता ॥१४॥
वृष्ट्यादिहीना न च भाति पृथ्वी । पूजादिहीनो न गृही विभाति ॥ परोपकार रहितो न जीवो ।
दानेन होनो धनवान्न भाति ॥१५॥ जिस प्रकार विना जलवृष्टिके पृथ्वीकी शोभा नहीं बढती, विना पूजा स्वाध्यायके गृहस्थ श्रावक सुशोभित नहीं होता, परोपकारके विना मनुष्यकी शोभा नहीं होती और विना दान के धनवानकी शोभा नहीं होती ॥१५॥