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वाक्कायचित्तैः सुदयार्द्रबुद्धया, पूतां ह्यहिंसां परिपालयन्ति ॥ ४३ ॥ दीर्घं वरायुः परमां सुबुद्धिं, श्रेष्ठं प्रभुत्वं परमं हि रूपम् । श्रेष्ठां विभूतिं वरदिव्यदेहं, धर्मानुकूलं च कुटम्बवर्गम् ॥४४॥ षट्खण्डराज्यं सुमनोहरं ते, क्रमेण लब्ध्वानुपमं हि वस्तु । अन्यैरलभ्यं विचलं स्वराज्यमत्यन्तमिष्टं स्वसुखं लभन्ते ॥ ४५ ॥
उत्तर: – यह अहिंसा श्रेष्ठ सरस्वतीके समान अज्ञानको दूर करनेवाली है, माताके समान इस पृथ्वीपर पालन पोषण करनेवाली है, कामधेनु के समान सुख देनेवाली है और अंतमें मोक्ष देनेवाली है । यही समझकर जो भव्यजीव मन, वचन, कायसे समस्त जीवोंपर दया धारण कर प्रमादके निमित्तसे कभी किसी जीवकी हिंसा नहीं करते हैं और अत्यंत पवित्र अहिंसा धर्मका पालन करते हैं उनको दीर्घ आयु प्राप्त होती हैं, सर्वोत्कृष्ट सुबुद्धि प्राप्त होती है, सर्वश्रेष्ठ बडप्पन प्राप्त होता है, सर्वोत्कृष्ट सुंदर रूप