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उत्तर:-जी महापुरुष उत्तम क्षमा आदि दश धर्मोको धारण करनेमें चतुर हैं, जो अपने आत्माका कल्याण और अन्य जीवोंका कल्याण करनेमें चतुर हैं, जो अपने आत्माकं स्वरूपका विचार करने में सदा लीन रहते हैं, जो अपने आत्माके आनंदामृत रसका पान करनेके लिये सदा प्रयत्न करते रहते हैं, जो मोक्षरूप अपने स्वराज्यमें जानेके लिये तथा अत्यंत शुद्ध अवस्थारूप अपने घर जानेके लिये जो सदा प्रयत्न करते रहते हैं, इसीप्रकार जो अपने आत्माकी स्वानुभूतिमें सदा लीन रहते हैं और सिद्ध सदृश अपने आत्माकी शुद्ध अवस्थामें सदा लीन रहते हैं वे ही जीव इस लोक में सदा काल जीवित बने रहते हैं। तथा जो जीव कभी धर्म धारण नहीं करते, आत्मचिंतन नहीं करते और शुद्ध आत्माका अनुभव नहीं करते वे जीव जीवित रहते हुए भी मरे हुए मुरदेके समान समझे जाते हैं ॥ ५४॥५५॥
मोहदुष्टाः पिशाचाश्च के जनं न तुदन्त्यहो।
प्रश्न:- हे प्रभो ! मोह दुष्ट पिशाच आदि किस मनुष्यको दुःख पहुंचाते हैं ?
सन्तोषसम्पद हृदि यस्य चास्ति, किं तस्य तीवापि करोति चापत्।।