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योगेन हीनो न च भाति योगी।
हस्तेन हीनं न च भाति शस्त्रम् ॥११॥ जिसपकार इस संसारमें विना तीव्र बुद्धिके मंत्री शोभा नहीं देता, विना देवके देवालय शोभा नहीं देता, विना योग वा ध्यानके योगी शोभा नहीं देता और विना हाथके शख शोभा नहीं देता ॥११॥
नेत्रेण हीनं वदनं न भाति । सत्येन हीना न च भाति वाणी ॥ अन्नं च खाद्यं रहितं घृतेन ।
दन्तेन हीनो न गजो विभाति ॥१२॥ जिसमकार विना नेत्रोंके मुखकी शोभा नहीं होती, विना सत्यताके वचनोंकी शोभा नहा होती, विना घीके खाने योग्य अन्नकी शोभा नहीं होती और विना दांतोंके हाथीकी शोभा नहीं होती ॥१२॥
हीनं च शास्त्रं न हि चाक्षरेण । मह्या हि हीना न च भाति छाया ॥ न भाति लोके गुरुहीनशिष्यो।
हीनः सभाभिन च भाति धीमान् ॥१३॥ जिसमकार विना पूर्ण अक्षराके शाख शोभायमान नहीं होते, विना पृथ्वीकं छाया शोभा नहीं देती, इस