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[१२] है, तपश्चरण करना धर्म है, जप करना धर्म है, व्रत उपवास करना धर्म है, देवपूजा करना, दान देना परिणामोंको शांत रखना, शील पालन करना, समता धारण करना, दया पालन करना, अहिंसा पालन करना, सत्यभाषण करना, अचौर्य व्रत धारण करना, परिग्रहोंका त्याग करना और मैथुन वा अब्रह्मका त्याग करना धर्म है । इसीप्रकार अपने आत्म धर्ममें लीन होना अपने स्वात्मस्वरूपमें स्थिर रहना भगवान् जिनेंद्र देवका ध्यान करना और अपने आत्मरस का सदा पान करते रहना धर्म है । भावार्थ ये सब धर्मके चिन्ह हैं ॥२१॥२२॥ 'धर्मात्किं प्राप्यते लोके । परलोकेऽपि किं गुरो॥
प्रश्न:--हे गुरो ! धर्मके प्रभावसे इस लोकमें क्या मिलता है और परलोकमें क्या मिलता है ?
धर्मेण बंधुः सुगुरुः पितापि। मित्रं सुपुत्रो भगिनी च भार्या। अन्यैरलभ्या भुवि सारभूता । साम्राज्यलक्ष्मीर्भवति स्वदासी ॥२३॥ धर्मप्रसादात्सकलाश्च जीवाः । स्वराज्यलक्ष्मी क्रमतश्च लब्ध्वा ॥