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अचिन्त्यसौख्यस्य वरं निधानं, पोतं वरं तारयितुं भवाब्धेः। साम्राज्यबीजं स्वसुखस्य सारं, भेत्तुं समर्थं च चतुर्गतिं च ॥३१॥ मिथ्यात्वतापं शमितुं जलं हि, दातुं समर्थं सुखशान्तिराज्यम् । सम्यक्त्वरत्नं सकलाश्च जीवा ! गृह्णन्तु शीघ्रं निजराज्यहतोः ॥३२॥ यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न अचिन्त्य सुखोंका श्रेष्ठ खजाना है, संसाररूपी समुद्रको पार कर देनेके लिय उत्तम जहाज है, तीनों लोकों राज्यका बीज है, आत्मसुखका सार है, चारों गतियों का नाश करनेके लिये समर्थ है, मिथ्यात्वरूपी संतापको शांत करनेके लिये जल है, और सुख शांति के राज्यको देने में समर्थ है। ऐसा यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न समस्त जीवोंको अपने शुद्ध आत्मा का राज्य प्राप्त करनेके लिये शीघ्र ही स्वीकार करना चाहिये, ग्रहण करना चाहिये ॥३१॥३२॥
पिता न माता भगिनी न भार्या, बंधुन पुत्रो न च मित्रवर्गः।