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प्रस्तावना
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करते थे । अतः जो उन्हें स्वीकार करे उसे श्वेताम्बर मान लिया जाता था । इसी आधार पर डा० के० बी० पाठकने शाकटायनको श्वेताम्बर मान लिया था और उनकी इस मान्यताको अनेक विदेशी विद्वानोंने भी स्वीकार कर लिया था; क्योंकि शाकटायनकी अमोघवृत्तिमें अनेक श्वेताम्बर मान्य आगम ग्रन्थोंका निर्देश है ।
डा० पाठककी इस मान्यताका निरसन श्रीयुत स्व० प्रेमी जीने 'शाकटायन ' का शब्दानुशासन' शीर्षक अपने निबन्धके द्वारा किया था जो सन् १९१६ में जैन हितंषी में प्रकाशित हुआ था । इसमें उन्होंने नन्दिसूत्रकी टीकामें आचार्यं मलयगिरिके एक वाक्यकी ओर ध्यान दिलाया था । उसमें शाकटायनको यापनीय यतिग्रामाग्रणी लिखकर उनकी स्वोपज्ञ शब्दानुशासन वृत्तिके आदिम मंगल श्लोकको उद्धृत किया है । उसके पश्चाद् डा० ए० एन० उपाध्येका यापनीयोंके सम्बन्धमें लेख बम्बई यूनिवर्सिटी के जर्नल ( जि० १, भाग ६ मई १९३३ ) में प्रकाशित हुआ । उसमें उन्होंने बतलाया कि श्वेताम्बर और दिगम्बरकी तरह ही यापनीय भी एक स्वतन्त्र और प्रमुख सम्प्रदाय था । उसके अपने मन्दिर और मूर्तियाँ थीं दक्षिणके अनेक राजवंशोंसे उन्हें संरक्षण प्राप्त था । शाकटायन इस सम्प्रदायका एक प्रसिद्ध ग्रन्थकार था । उसके शब्दानुशासनको अमोघवृत्तिके साथ दिगम्बरोंने अपना लिया और शेष दो प्रकरणोंको श्वेताम्बरोंने ।
दो प्रकरण हैं स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति । श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायके मौलिक भेदमें ये ही दोनों मान्यतायें प्रमुख कारण हैं ।
भारतीय ज्ञानपीठसे अमोधवृत्तिका जो संस्करण प्रकाशित हुआ है उसके प्रारम्भमें जर्मनी - के प्रो० डा० आर० बिरवेकी विद्वत्तापूर्ण अंग्रेजी प्रस्तावना है । उसमें उन्होंने उक्त दोनों प्रकरणोंके शब्दानुशासनके रचयिता शाकाटायनकृत होनेमें कुछ आपत्तियां उठाई हैं । ये दोनों प्रकरण भी इस संस्करण में दिये गये हैं । प्रथम स्त्रीमुक्ति प्रकरण है । इसके प्रारम्भमें छपा है'यापनीय- यतिग्रामाग्रणि भदन्तशाकटायनाचार्य विरचितं स्त्रीमुक्ति केवलिभुक्तिप्रकरणयुग्मम् । स्त्रीमुक्ति प्रकरण अन्तमें उसके कर्ताका नाम नहीं है । यथाइति स्त्रीमुक्ति प्रकरण समाप्तम् ।
केवल भुक्ति प्रकरणका अन्त इस प्रकार हैइति केवलिभुक्ति प्रकरणम् । इति स्त्रीनिर्वाण केवलीयभुक्ति प्रकरणम् ॥ कृतिरियं भगवदाचार्यंशाकटायनभदन्तपादानमिति ।
इस परसे प्रो० डा० बिरवेने लिखा है कि इसमें खटकने वाली बात यह है कि अन्तिम पुष्पिकामें केवल भगवदाचार्य शाकटायन लिखा है उसमें उनके संघका निर्देश नहीं है । किन्तु प्रारम्भिक वाक्य में शाकटायन के साथ यापनीययतिग्रमाग्रणी पद लगा हैं जैसा कि मलयगिरिने • लगाया है । यह मौलिक अन्तर उल्लेखनीय है ।
१. जै० सा० इ०, पृ० १५५ ॥
२. उक्त प्रस्तावना, पृ० १७ आदि 1
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