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भगवती आराधना प्रसंगमें उन्होंने यह प्रश्न उठाया है कि पूर्वागमोंमें वस्त्रपात्र आदि ग्रहण करनेका उपदेश है और उसको दिखलानेके लिए आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगमोंके प्रमाण उपस्थित किये हैं। तथा समाधानमें उन्हों आगमोंके प्रमाण देकर यह बतलाया है कि आचारांग आदिमें विशेष अवस्था में वस्त्रका ग्रहण बतलाया है लज्जाके कारण, शरीरके अंग ग्लानियुक्त होनेपर तथा परिषह सहनेमें असमर्थ होनेपर वस्त्र ग्रहण करें।
इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें मुनिका वस्त्रपात्र ग्रहण मान्य है । वह तो आगमोंमें वर्णित वस्त्रपात्रको विशेष अवस्थामें ही बतलाया गया कहते हैं।
टीकाकार ने लिखा है-'आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया भिक्षूणां ह्रीमानमोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्बमानबीजो वा परीषहसहने अक्षम स गलाति अचेलता नाम परिग्रहत्यागः पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्यागः सिद्ध एवेति । तस्मात्कारणा ग्रहणम् यदुपकरणं गृह्यते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहणविधि गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यम् । तस्माद् वस्त्रपात्रं चार्थाधिकारमपेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् (पृ० ३२४-३२५)
अर्थात् आगममें आर्यिकाओंको विशेष कारण होनेसे वस्त्रकी अनुज्ञा है। भिक्षुओंके शरीरका अवयव यदि लज्जाजनक हो. लिंगके मुखपर चर्म न हो या अण्डकोष लम्बे हो, अथवा परिषह सहने में असमर्थ हो तो वह वस्त्र ग्रहण करता है । अचेलताका अर्थ है परिग्रह त्याग । पात्र भी परिग्रह है अतः उसका भी त्याग सिद्ध हो है। अतः कारण विशेष होनेपर ही वस्त्रपात्रका ग्रहण होता है तथा कारण विशेष होने पर जो उपकरण ग्रहण किया जाता है उसके ग्रहणकी विधि, तथा ग्रहण किये हुए का त्याग अवश्य कहना चाहिये । इसलिये बहुतसे सूत्रग्रन्थोंमें अर्थाधिकारकी अपेक्षासे जो वस्त्रपात्रका कथन किया है वह कारण विशेषकी अपेक्षा कहा है ऐसा मानना चाहिये।
उक्त उद्धरणोंसे टीकाकार की भी स्थिति स्पष्ट हो जाती है। तथा दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीयका भी भेद स्पष्ट हो जाता है। दिगम्बर तो विशेष परिस्थिति ग्रहण स्वीकार नहीं करते, न वे ऐसे आगमोंको मान्य करते हैं जिनमें वस्त्रपात्र यापनीय उन आगमोंको अमान्य न करके उनके कथनको विशेष कारणकी अपेक्षा स्वीकार करते हैं । अतः कारण विशेषसे ग्रहण किये गये वस्त्रपात्रको वे त्याज्य ही मानते हैं । अतः जिसने अपनी असमर्थताके कारण वस्त्र ग्रहण किया है उसे अन्तमें वस्त्र त्याग करना ही होगा यह ग्रन्थकार और टीकाकार दोनोंका मन्तव्य है। अतः न वे सवस्त्रमुक्ति मानते हैं और न परशासनमें मुक्ति मानते हैं । किन्तु वे वस्त्रपात्रवादके समर्थक आगमोंको दिगम्बरोंकी तरह सर्वथा अमान्य नहीं करते । इसीसे वे यापनीय कहे जा सकते हैं । यापनीय आगम ग्रन्थोंको मानते थे यह शाकटायन व्याकरणके उदाहरणोंसे भी स्पष्ट है।
इस ग्रन्थकी सर्वप्रथम भाषा टीका पं० सदासुखदास जी ने की थी। उनके सामने अपराजित सूरिकी टीका भी थी। उक्त प्रकरणको देखकर उन्होंने लिखा था कि इस ग्रन्थकी टीकाका कर्ता श्वेताम्बर है, वस्त्र पात्र आदिका पोषण करता है अतः अप्रमाण है।
___ तब तक यापनीय संघसे विद्वान भी अपरिचित थे। दिगम्बर और श्वेताम्बर दो ही जैन सम्प्रदाय सर्वत्र ज्ञात थे और पूर्वागमोंको दिगम्बर स्वीकार नहीं करते थे, श्वेताम्बर ही स्वीकार
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