________________
प्रस्तावना
सवस्त्र मुक्ति अभीष्ट होती तो वह भक्त प्रत्याख्यानके लिये औत्सर्गिक लिंग आवश्यक नहीं रखते और न टीकाकार उत्सर्गका अर्थ सकल परिग्रहका त्याग करते तथा परिग्रहको यतिजनोंके अपवादका कारण होनेसे अपवादरूप न कहते। और न स्त्रियोंसे ही अन्तिम समय एकान्त स्थानमें परिग्रहका त्याग कराते ।
श्वेताम्बर परम्परामें जो भक्तप्रत्याख्यान विषयक मरणसमाधि आदि ग्रंथ हैं, जिनके साथ इस ग्रंथकी अनेक गाथाएँ भी मेल खाती हैं उनमें भक्तप्रत्याख्यानके लिये आवश्यक लिंगका कथन ही नहीं है। किन्तु भगवती आराधनामें उसपर बहुत अधिक जोर दिया गया है और इस विषयमें ग्रंथकार और टीकाकारमें एकरूपता है। दोनों ही साधु आचारके विषयमें इतने कट्टर हैं कि दिगम्बर आचार्योंको भी मात करते हैं।
आगे यह प्रश्न किया गया कि जो भक्तप्रत्याख्यानके योग्य है वह रत्नत्रयकी भावनाका प्रकर्ष होनेपर मरणको प्राप्त हो जायेगा, लिंग ग्रहण आवश्यक क्यों है ? इसके उत्तरमें ग्रन्थकार ने गा० ८१-८४ तक लिंग ग्रहणके गुण बतलाये हैं ।
आगे प्रश्न किया गया क्या अपवाद लिंग का धारी शुद्ध नही ही होता? इसके उत्तरमें ग्रन्थकार कहते हैं
अपवाद लिंगका धारी अपनी शक्तिको न छिपाते हुए अपनी निन्दा गर्दा करते हुए परिग्रहका त्याग करने पर शुद्ध होता है ॥८६॥
इसकी टीकामें टीकाकारने निन्दा गर्दाको स्पष्ट करते हुए लिखा है-'सकल परिग्रहका त्याग मुक्तिका मार्ग है। मुझ पापीने परिषहके भयसे वस्त्रपात्र आदि परिग्रह स्वीकार की' इस प्रकार अन्तरंगमें सन्तापको निन्दा कहते हैं। और दूसरोंसे ऐसा कहनेको गर्हा कहते हैं। जो ऐसा करता है वह निन्दा गर्दा क्रियारूप परिणत होता है । अन्तमें लिखा है
__'एवमचेलता व्यावर्णितगुणा मूलतया गृहीता।' अर्थात् इस प्रकार जिस अचेलताके गुणोंका वर्णन किया गया है उसे मूल गुणरूपसे स्वीकार किया है।
जो सकल परिग्रहके त्यागको मुक्तिका मार्ग मानता है वह सवस्त्र मुक्ति या स्त्री मुक्ति कैसे स्वीकार कर सकता है ?
समाधिमरणके इच्छुक क्षपकको अपनी समाधिके लिए किस प्रकारका आचार्य खोजना चाहिये, इस प्रसंगसे कहा है जो दस कल्पोंमें स्थित हो। अतः गाथा ४२३ में दस कल्पोंको कहा हैं । यह गाथा मूलाचारमें भी है और श्वेताम्बर आगमोंमें भी है। इसमें सबसे प्रथम कल्प है अचेलता। चेल वस्त्रको कहते हैं अत: अचेलताका अर्थ होता है 'वस्त्ररहितपना' । किन्तु टीकाकारने अचेलकपनेका अर्थ करते हुए लिखा है-'चेल शब्दका परिग्रहका उपलक्षण है । अतः आचेलक्यका अर्थ है समस्त परिग्रहका त्याग । दस धर्मोंमें त्याग नामका एक धर्म है । त्यागका अर्थ है समस्त परिग्रहसे विरक्तता । अचेलताका भी यही अर्थ है । अतः 'अचेल' यति त्याग धर्मका पालक होता है आदि।
इस गाथाकी टीकामें टीकाकारने अचेलताके गुणोंका विस्तारसे समर्थन किया है। उसी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org