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किरण १]
श्री बा० देवकुमार : जीवन और विचारधारा
का कोई भी समाचार कुमार जी के हृदय में शून की तरह चुभ जाता था। उनका हृदय रो उठता था। अबला जीवन के आँसुत्रों से उनकी वाणी सिक्त हो जाती थी। निम्न उदाहरण ही उनके हृदय की थाह लेने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता:
“एक जैनी ने १३ वर्ष की बालिका को चौंसठ वर्ष के वृद्ध पुरुष के साथ विवाह दिया । । हाय ! पाठको ! इस भयंकर समाचार के बाँचने से क्या आपके कलेजे उस बिचारी अबला के दुःख सहने के क्लेशों को विचार कर भर न पाये होंगे?"
मानसिक विकास के लिए शारीरिक शक्ति अनिवार्य साधन है; जो संयम, शील और सम्यक् प्राचार के द्वारा ही प्राप्य है। इस विषय पर कुमार जो अपने समाज का ध्यान सदैव श्राकर्षित करते रहे। उन्होंने स्पष्टतः कहा है कि समाज की उन्नति के लिए उसके सभी अंगों का विकास श्रावश्यक है । इस विकास के प्रधान साधन हैं (१) योग्य उपाय (२) योग्य मुखिया (३) हार्दिक सहायता । परन्तु पाए दु रोग से ग्रसित इस जर्जर समाज की आँखें तो केवल पीले धब्बे ही देख सकती थीं। समाज के पिछड़े हुए व्यक्तियों को सहारा देकर संपूर्ण समाज की प्रगति में हार्दिक सहायता पहुँचाने की आवश्यकता हमारे योग्य मुखिया नहीं समझ पाते । परिणाम है समाज के एक एक कीर्तिस्तंभ का पतन और नवीन प्रतिभा का संकोच । कुमार जी के सामाजिक विचारों का मूल मन्त्र था- "प्रत्येक मानव की चित्त भूमिका में ऐसे २ भाव रूपी बीजों को बोना कि जिनके द्वारा उस व्यक्ति की मानसिक शक्ति प्रबल होकर दृढ़ता के साथ जगत में व्यवहार करने योग्य हो जाय।"
कुमार जी के उपयुक्त वाक्य के प्रत्येक शब्द में जैन-समाज के उत्थान का बीज छिपा हा है। आज जबकि सहस्रों वर्ष से पिछड़ी हुई जातियाँ भी अपने जातीय गौरव को पुनः प्रतिष्ठित करने में समर्थ बन रही हैं, एकमात्र केवल जैन-जाति भारतीय रंगमंच से अपना अस्तित्व भी खोती जा रही है। पूर्व गौरव के ढोल पीट कर कोई जाति अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकती, उसे वर्तमान की समस्याओं का निर्भीकता पूर्वक सामना करना पड़ेगा। खेद है कि कुमार जी की जातीय-भावना का लेश भी श्राज के जैन समाज में नहीं रह गया । यही कारण है कि इस जाति का विलयन बड़ी तेजी से प्रारंभ हो गया है।
कुमार जी जैन-जाति के उत्थान में उस सांस्कृतिक चेतना के उत्थान का स्वप्न देखते थे, जो सदैव मानवता को संकटकाल से मुक्त कर जगत में सुख, शान्ति और समानता का संदेश फैलाती रही। जैन-संस्कृति के प्रसार में ही वे देश और विश्व का कल्याण मानते थे। पाश्चात्य संस्कृति के कुप्रभावों पर दृष्टिपात करते हुए वे कहते हैं
"ऐसे समय पर जबकि चहुँ ओर आत्म धर्म लुप्त होकर एक ऐसी मायावी धर्माभासिनी देवी जगत के प्राणियों को विमोहित कर रही है कि जिससे वे सर्व सद्गुणों को पददलित कर शरीर को