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वृहत्तर भारत में जेन संस्कृति के प्रभाव की खोज
[ ले० श्रीयुत बा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम० ए०, एल-एल० बी० ] गत कई शताब्दियों के विश्व इतिहास में हम यह पढ़ने और सुनते आये हैं कि यूरोप के विभिन्न देशों ने, विशेषकर अंग्रेज जाति ने किस प्रकार मुदर देशों में अपने उपनिवेश स्थापित करके, वहाँ अपनी संस्कृति का बीजारोपण और विकास करके किस प्रकार अपने राष्ट्र को बदत्तर रूप दिया और अपनी सभ्यता से संसार को प्रभावित किया । किन्तु हममें से थोड़े ही इस बात को जानते हैं कि ऐनिहामिक काल में भी एक समय था जब भारतवर्ष की सभ्यता अपने चरम शिखर पर थी, समन्न संसार उससे प्रभावित था और वह संसार का शिगेमगि देश था । उस युग में स्वयं भारतीयों ने भारत से बाहिर जाकर अनेक उपनिवेश बमाये थे, उनमें अपनी देशीय संस्कृति का बीजवपन किया, सिञ्चन किया, विकास किया और इस प्रकार एक विशाल वृहत्तर भारत का निर्माण किया था। उक्त निर्मागा में गव्य और शक्ति के अाकांक्षी साहसी वीगे. और धन के इच्छुक उत्साही वणिक ने तो भाग लिया ही या, संस्कृति एवं धर्म प्रचार के अभिलारी विद्वानों तथा धर्माचाबों में भी अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान किया था। इन प्रवासी धर्मप्रचारकों में अभीतक बौद्ध एवं ब्राह्मगा धर्मियों के ही नाम के उल्लेख्य प्रायःकर मिलते हैं। जैनट में इस दिशा में भीलक प्रायः कुल भी कार्य नहीं दया है।
वास्तव में यह अमंलब है कि ममकालीन लेन प्रचारक इस संबंध में मथा निष्क्रिय रहे हों, विशेषकर जबकि उनका धर्म उस समय प्रचलित किसी भी अन्य धर्म की अपेक्षा किसी भी दिशा और ग्रंश भी हीन नहीं था। भारत के बाहर जैन धर्म के प्रचार और जैनधर्माचापों के गमनागमन के अनेक उल्लेख भी मिलते हैं। नैवाल और तिब्बत में ही नहीं चीन महादेश में भी जैनधर्म का प्रकाश ना था! अफगानिस्तान. कविशा एवं मध्य एशिया में ७ ः शताब्दी में जैनधर्म के विद्यमान होने का चाक्षर साक्ष्य दो चानी यात्री हुएनत्सांग (६१८-६५४:०) ही प्रस्तुत करना है। यूनान, रोम और मिश्र पन्त भी जैन श्राण प्राचीन काल में गये थे इस बात के फुट कर प्रभागा उपलब्ध हैं। लंका में जैन धर्म का प्रचार चौथी, पांचवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व में था तथा प्राटवीं शताब्दी ईस्वी में भी वहाँ जैनों की अच्छी बस्ती थी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
परन्तु ब्रह्मा, श्याम, मलाया प्रायद्वीप, तथा पूर्वी द्वीप समूह के जाया सुमात्रा, बोनिओं, बालि श्रादि द्वीपो में श्रीर अफ्रीका के पूर्वी तट के प्रदेशों में जैन संस्कृति का क्या कुछ प्रभाव पहुँचा, इस दिशा में अभी कुछ अध्ययन नहीं हो पाया । उक्त प्रदेशों से सम्बद्ध इतिहास, पुरातत्त्व, साहित्य, संस्कृति आदि का अध्ययन करने वाले यूरोपियन विद्वानों ने, जिनमें फ्रान्सीसी